अगर बकरी पलकों को नही मिला बाजार तो क्या हो सकता है अर्थव्यवस्था पर असर।



बकरी पालन गरीब ग्रामीण परिवार का शुरू से एक मत्त्वपूर्ण जीविकोपार्जन का साधन रहा है। एक से कम एक बकरा हर परिवार में देखने को मिल जाएगा। इसे गरीबों का ATM भी कहा जाता है। जब भी ज़रूरत हुई इसे बेच लिया और अपनी जरूरत को पूरा कर लिया। कई लोग बकरीद के लिए खास कर बकरा पालते हैं। एक साल दो साल से इसकी सेवा करते हैं कि बकरीद के समय मे इसकी अच्छी कीमत मिल जाएगी। और अक्सर मिल भी जाती है।
कोरोना के कारण लॉकडाउन से पहले ही ग्रामीण अर्थव्यस्था की हालत खस्ता है। काम नही मिलने के कारण ग्रामीणों की खरीदने की क्षमता घटती जा रही है। लॉकडाउन खुलने से धीरे धीरे मार्किट में चहल पहल आ रही थी। लेकिन इस चहल पहल के साथ कोरोना ने भी अपना प्रसार बढ़ा लिया। मजबूरी में बिहार सरकार को फिर से लॉकडाउन करना पड़ा। लेकिन इस लॉकडाउन से उन गरीबों के बकरों का क्या होगा जो उन्होंने साल दो साल से बकरीद के लिए पाल पोस कर रखा था? क्या ये अपने बकरों को बेच पाएंगे? अगर बेच भी पाए तो क्या उन्हें इन बकरों का सही कीमत मिल पायेगा?
सरकार को इनके लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए ताकि इन्हें अपने बकरों का सही कीमत मिल सके। अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था बिगड़ती है तो देश की अर्थव्यवस्था को संभालना बहुत मुश्किल होगा। अगर ग्रामीणों के जीविकोपार्जन का ख्याल नही रखा गया तो निश्चित तौर पर बैंकों में NPA की संख्या में भी बढ़ोतरी होगी। अभी वक्त की मांग है कि ग्रामीण उत्पाद का वैकल्पिक बाज़ार उपलब्ध कराया जाए। 

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